Sunday, November 27, 2011

उपेन्द्र नाथ अश्क

जालंधर शहर में 14 दिसम्बर को जन्मे उपेन्द्र नाथ अश्क पिता माधोराम के छह बेटो में एक थे । आपने दयानंद एंग्लो संस्कृत हाई स्कूल, जालंधर की प्राइमरी ब्रांच से चौथी कक्षा तक पढाई करने के बाद स्कूल ब्रांच में प्रवेश ले लिया ।

डी..बी. कॉलेज, जालंधर से बी. और 1932 में विश्वविद्यालय ला कॉलेज से एल एल .बी. किया। पिता स्टेशन मास्टर थे, लेकिन घर कि आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। कम उम्र में ही अश्क को कमी के चक्कर में पड़ जाना पड़ा। वह दयानंद ऐंग्लो संस्कृत स्कूल,जालंधर में अध्यापक हो गए।

कुछ समय बाद लाहौर चले गए और रेडियो के लिए नाटक लिखने लगे। साथ ही सेल्स एजेंट और प्रकाशन का भी काम करने लगे। 1939 में अश्क जी प्रीत नगर गए और प्रीत लड़ी का संपादन करने लगे। दो बर्ष बाद ही वह आल इंडिया रेडियो से जुड़ गये अष्क जी कि तीसरी शादी कौशल्या जी से 1941 के सितंबर में हुई। बाद में इलाहाबाद आकर बस गए और वहीँ के हो गए वह इलाहाबाद रेडियो में प्रोडूसर भी रहे

अश्क जी कि पहली रचना का प्रकाशन वर्ष है 1926। बताते है साप्ताहिक भूचाल के संपादन के अतिरिक्त वह 1933 में गुरु घंटाल के लिए सिर्फ एक रूपये में कहानी लिखा करते थे । अश्क जी के दो उर्दू कहानी संग्रह नव रत्न और औरत कि फितरत प्रकाशित हो चुके थे

इसके बाद अश्क जी हिंदी में लिखना शुरु किया। 1933 में अश्क जी पहला हिंदी संग्रह प्रकाशित हुआ जुदाई कि शाम का गीत, लेकिन इसकी ज्यादातर कहानिया उर्दू में चुकी थी। खुद अश्क इनको लेकर आश्वस्त नहीं थे अश्क जी ने खुद लिखा है -" ये कृतिया उतनी अच्छी नहीं है वे आदर्शोन्मुखी, कल्पना प्रधान और कोरी रूमानी थी। अनुभूति का स्पर्श उनमे कम था। "

1936 से 39 के बीच अश्क ने तेजी से लिखा। पहली पत्नी के निधन के बाद के समय अश्क जी खुद को रचनाभिमुक कर लिया। इस दौरान अश्क जी ने जय पराजय ,पापी ,वेश्या, लक्ष्मी का स्वागत, अधिकार का रक्षक, पहेली, जोंक आपस का समझौता, उर्दू काव्य कि नई धारा, स्वर्ग की झलक, प्रातः प्रदीप, पिंजरा , और छीटे लिखी। प्रीत नगर जाकर उन्होंने कुछ नाटक कहानिया और महत्वाकांक्षी उपन्यास गिरती दीवारे के कुछ अंश भी लिखे। 1941 में उन्होंने दूसरी शादी की। 1945 में अश्क मुंबई चले गए और कुछ फिल्मे लिखने में लग गए। बाद में इलाहाबाद लौटकर उन्होंने नीलाभ प्रकाशन की शुरुवात की


उनके
लेखन की तुलना अगर लक्ष्मीकांत वर्मा ने स्टीवेंसन से की है तो यह उनके लेखकीय श्रममें भी देखा जा सकता है कई उपन्यास उन्होंने पांच से भी अधिक बार दोहराया है। अपनी रचनाधर्मिता पर उनेह पूरा यकीन था पांच -छह दशक तक गिरती दीवारे उन्होंने बाकायदा संकल्प लेकर लिखा था चेतन का समूचा जीवन लिखने की चाह में वह गिरती दीवारे,एक नन्ही किंदील , बांधो नाव इस ठांव , लिखते चले गए इसका पांचवा खंड भी वह इसी उतशाह में लिखते चले गए

पंजाब के एक निम्न मध्यमवर्गीय नवजवान की जिन्दगी की इस महागाथा को हिंदी में मध्य वर्ग के महाकाव्य के रूप में ठीक ही स्वीकृत मिली है लेकिन इससे पूर्व ही अश्क का उपन्यास सितारों के खेल १९४० में चुका था गर्म राख ,बड़ी-बड़ी आँखें , पत्थर अल पत्थर उनके अन्य प्रमुख उपन्यास है.


अश्क जी को जीवन में तीन शादिया भी बदल सकी। उनका भी गिरती दीवारे का समर्पण पढकर उन्हें समझा जा सकता है -जिन्दगी के नाम जो अपने तमाम दुःख सुख के बावजूद दिलचस्प है।' उनकी विविधता लिए पात्र और उनकी बड़ी दुनिया ही नहीं, साहित्य की सामाजिक सार्थकता के प्रति उनके रचनाकार की प्रतिबद्धता के लिए भी वह प्रसंसनीय है। उनका कहना ठीक है-"मै भांड या मीरासी नहीं हू की मै महज पाठको के मनोरंजन के लिए रचना करू। मैंने जिन्दगी बहुत भोगा है। जिन्दगी की समस्याओ और पेचीद्गिओं पर चिंतन किया है

जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस कथाकार ने मध्यमवर्गीय समाज में लगाया । उनकी आलोचनात्मक दृष्टि खास तरह के व्यंगात्मक टोन में काम करती रही । इस पार्श्व में उनका उद्देश्य रहा कि लोग उनकी असलियत को पहचान ले । स्वयं को भी चरित्र बनाने से वह चूके नहीं, लेकिन उन्हें भी तटस्थ होकर ही चित्रित किया । वह लेखन को अपनी नियति मानते रहे और तन्मय होकर उसी में सुख का अहसास करते रहे । अपने उपन्यास 'गिरती दीवारे' पर शोध करने वाले रमेश शौनक कि इस बात से वे काफी खुश थे कि उन्हें हिंदी के दो उपन्यासों में वह श्रेष्ठ लगा ।

दीवारे को ' चेतक कथा-चक्र' कहने वाले पश्चिम जर्मनी के प्रोफेसर ग्याफ्फे का यह कथन वह कई जगह उद्घृत करते है कि - 'स्वतंत्रोय्तर गद्य साहित्य में यह उपन्यास एकमात्र महान उपन्यास है । हिंदी वाले मेरी मान्यतावो से सहमत नहीं होगे पर हिंदी साहित्य में जिनका दिद्रदम पीटा जाता है, उन्हें यहाँ कोई नहीं जनता ।

अश्क हिंदी में आये अस्तित्ववादी दौर के सख्त आलोचक थे वह मानते थे की लेखन को जिस जीवन की परख हो , उसी पर लिखे फैशनपरस्ती के लेखन से उन्हें चिड थी अपने देहाती जीवन के अनुभवों पर अश्क 'डाची' और कांकडा का तेली सरीखी बेहतरीन कहानिया लिखीं लेकिन जब वह शहर चले गये तो उनकी प्रस्थ्भूमि ही बदल गयी ..

गिरती दीवारें का चेतन, शहर में घूमता आइना में जालंधर के कल्लोवानी मोहल्ले में चल रहा संघर्ष, एक नन्ही किंदील कि चंदा, बांधों न नाव इस ठांव के हुनर साहब का बर्ताव, गर्म रख का जगमोहन, उसकी भाभी और सत्या निमिषा में गोविन्द और निमिषा का पत्र व्यवहार बड़ी बड़ी आँखे का नायक और देवनगर आसानी से पाठक का पीछा नहीं छोड़ते ।

अश्क की कहानिया

दो सौ भी अधिक कहानियो के लेखक अश्क जी की बेहतरीन कहानियो की सूची बनायीं जाये, तो भी अलग -अलग लोगो द्वारा बनायीं गयी सूची में भी कम से कम पांच कहानिया अवश्य रहेंगी -'डाची',कांकडा का तेली ,काले साहेब, पलंग आकाशचारी प्रेमचंद्र ने अश्क की कहानिओ के बारे में कहा था -'मै बराबर उनकी कहानिओ को शौक और दिलचस्पी के साथ पढता रहा हूँ मुझे उनकी अधिकांश कहानिओ में तासीर का अहसास हुआ है और तासीर लेखनी में गुणों के एकत्र होने का नाम है

दरअसल उनकी कहानियो में ऊपर से नज़र आने वाली सरल सादगी बड़े परिश्रम से साधी गयी है । इसके पार्श्व में, अश्क का घनघोर पढ़ाकू लेखक भी है जो अपने पात्रों तक को 'अन्ना केरानिना' पढवा देता है । चेखव की सी बारीकी और मोपांसा की-सी मर्मस्पर्शिता उनके कहानीकार को गहरे में पसंद ही नहीं थी, वह अपनी रचनावो में भी इसके लिए पूरी जान लड़ा देते थे । इस दृष्टि से मुझे उनकी 'नासूर', 'पिंजरा', 'एक उदास शाम', 'उबाल', कैप्टन रशीद', 'कहानी लेखिका और जेहलम के सात पुल' अछि लगती है ।

वह मंटो जैसे रचनाकार को पसंद करते थे । उनके आलोचक भी थे और उन जैसा होना भी चाहते थे, लेकिन कही कोई चेतनात्मक फर्क ऐसा जरुर था, जो उन्हें मंटो जैसा न बना सका ।

कहना जरुरी है कि उनकी हिंदी अर्जित कि हुई है और प्रेमचंद को वह पहली साँस से मिली थी । इसलिए अनेक विद्वानों को कभी कभी अश्क कि भाषा में किताबीपन नज़र आता है । दरअसल, अश्क यह पहचान गए थे कि बड़े पाठक-समुदाय से हिंदी में आकर ही जुड़ा जा सकता है, और फिर उनकी इस इच्छा को प्रेमचंद ने राह भी दिखा दी । नए लेखक उनसे कटर परिश्रम से सीख ले सकते है ।

अगर 19 जनवरी, 1996 की मनहूस तारीख न आई होती तो आज भी यह खिलंदड़ा कथाकार हमारे बिच होता । इसी दिन इलाहाबाद में समय ने अश्क को हमसे छीन लिया ।

बहुत काम लोग जानते है कि उनके द्वारा सम्पादित संकेत के दो बड़े अंको में कितना श्रम हुआ था । राजेंद्र यादव की कहानी 'जहा लक्ष्मी कैद है' और अमरकांत की कहानी 'जिन्दगी और जोंक' का शीर्षक अश्क जी ने ही दिया था । 'बेदी: मेरा हमदम मेरा दोस्त' हो या 'कहानी के इर्दगिर्द', 'आमने-सामने' हो या 'गिरती दीवारें: दृष्टि प्रति दृष्टि' अश्क का परिश्रम और पर-फैक्सन हर जगह नज़र आता है ।

अश्क की नज़र और स्मृतिया

कहते है, भारत भूषण अग्रवाल ने एक बार उपेन्द्र नाथ अश्क से कहा था 'एक अश्क में दस अश्क छिपे है ।' खुद अश्क जी की यह मान्यता रही है कि सभी लोगो पर यह बात लागु होती है । यही वजह है कि चेहरे अनेक में उन्होंने खुद को भी एक चरित्र कि बहती लिया है । यहाँ आत्मवृत्त और जीवनवृत्त, दोनों कि झलक मिलती है ।

इसका आधार बना है वह लेख, जो अश्क ने सारिका के स्तम्भ 'आईने के सामने' के लिए लिखा था । चूँकि इस पत्रिका में यह आत्मकथ्य सम्पादित रूप में प्रकाशित हुआ था, इसलिए लेखक ने इसे फिर से लिखा । इसे पढ़ते हुए जहा हम उसकी नज़र से परिचित होते है, वही जबरदस्त याददास्त और नजरिये कि परख होती है लेकिन वहा भी रचना और रचनाकर प्रमुख होता है ।

करीब तीन चौथाई सदी पहले, संस्मरण लिखने वाले काम थे । तटस्थ संस्मरण तो न के बराबर थे । उनके लिए जिस निर्लिप्त भाव कि जरुरत होती है, वह अश्क ने अपने संस्मरणों में उसी वक़्त लिख दी थी । उनके यादगार संस्मरणों में 'मंटो मेरा दुश्मन' ही नहीं निराला, यशपाल, और राजेंद्र यादव भी शामिल है । इन संस्मरणों में हिंदी में एक नयी बयार बह निकली जो बाद में 'मेरा हमदम मेरा दोस्त' शैली तक खिचती चली गयी । निरल से हवी तीन मुलाकातों कि स्मृतियों में उस महाप्राण के मनोविज्ञान, उनकी सरलता और उदारता का एक-एक सूत्र मौजूद है । उनके प्रति हुए आकर्षण व निष्कर्षण को भी लेखक ने छुपाया है ।

अश्क के पत्र

अपनी पीढ़ी के अनेक रचनाकारों कि तरह अश्क को भी पत्र लेखन से बड़ा लगाव था । लेकिन उनके पात्रों में एक रचनातमक सरोकार भी जुड़ा रहता था । 'दो यात्राये' कि एक यात्रा में उन्होंने इस सरोकार का संकेत किया भी है कि कभी-कभी जब वह बाहर जाते, ऐसे पत्र लिखते । इनका मकसद पत्र लिखना उतना नहीं होता, जितना कि उस बहाने यात्रा के मनोरंजक विवरणों को पंक्तिबद्ध करना, ताकि बाद में उन पर विस्तार से कोई रचना की जा सके ।

वह बताते है कि 1934 के शिमला प्रवास में पत्नी को लिखे पात्रों के आधार पर ही अपना उपन्यास एक रात का नरक लिखा था । उनके अनेक पत्र ऐसे है, जहा आलोचनात्मक संवाद हुआ है । मोहन राकेश, राज कमल चौधरी, डाक्टर राम विलास शर्मा, परेश, राजेंद्र सिंह बेदी, रवीन्द्र कालिया, आनंद स्वरुप वर्मा, कौशल्या अश्क और लक्ष्मीचंद जैन आदि के लिखे पत्रो में अनेक स्तरों पर यह संवाद सामने आता है ।

अश्क के लिखे प्रेमचंद के पत्रो में वह 'डिएर उपिन्दर' हो जाते है और कई ऐतिहासिक जानकारियां मिलती है । माखन लाल चतुर्वेदी, अज्ञेय, भुवनेश्वर, जैनेन्द्र कुमार, बलराज साहनी, भगवती चरण वर्मा, बेदी, शमशेर, श्रीपत राय, राहुल संकृत्यायन, यशपाल, मंटो, रेणु, मुक्तिबोध, नामवर सिंह, अमृत लाल नागर, सज्जाद जहीर सहित अनेक रचनाकारों के लिखे पत्र बताते है कि अश्क जी के हिंदी-उर्दू के रचनाकारों, संपादको, प्रकाशको से निरंतर पत्र व्यव्हार था ।

ये पत्र बताते है कि जहा मंटो उर्दू अदब में अश्क की शमूलियत जरुरी समझते है वही नामवर सिंह यह पाते है कि 'बड़ी बड़ी आँखें' अश्क के घोर यथार्तवादी तथा तथ्यवादी उपन्यासों से कभी भिन्न है । वह पाते है कि इस दिशा में बढ़ने कि प्रेरणा अश्क को चेखव और तुर्गनेव से मिली है ।

यशपाल को 'काला साहब' कहानी पसंद आना हो या विचार का 1940 से निकलने कि सुचना भगवतीचरण वर्मा द्वारा देना, भुवनेश्वर द्वारा स्वयं दी गयी यह सुचना कि उनका पहला एकांकी नाटक 'श्यामा एक वैवाहिक विडम्बना' है, जो 1933 में हंस में प्रकाशित हुआ था, ये पत्र अलग अंदाज में साहित्य के इतिहास के लिए जरुरी सामग्री देने वाले स्रोत है ।

अश्क के नाटक और एकांकी

अश्क के चौदह नाटको में 'लौटता हुआ दिन', 'बड़े खिलाडी', 'जय-पराजय', 'स्वर्ग की झलक, 'भंवर', 'कैद', 'अंजो दीदी', 'उडान', 'अलग अलग रास्ते' अलग अलग कारणों से महत्वपूर्ण है। इसमें 'अंजो दीदी' सन 1955 में प्रकाशित हुआ । यह स्वयं नाटककार अश्क को भी प्रिय रहा । इसका पहला अंक 1933 के गर्मियों के एक दृश्य से इन्द्रनारायण वकील के भव्य कोठी के एक बड़े हाल में खुलता है । दस प्रमुख पात्रों से चलता यह नाटक दूसरे अंक में बीस बरस बाद का दृश्य लेकर आता है ।

इस नाटक ने न सिर्फ रंगकर्मियों का वरन आलोचकों का भी ध्यान खीचा है । राजेंद्र यादव ने ठीक ही कहा है - "की इसमें संदेह नहीं कि पूरे यथार्थ के साथ नाटकीय तत्वों को उभरते हुए आवश्यक मानवीय सहानुभूति मनुष्य की भावनाताम्क संस्कारगत विशेश्तावो का उचित ध्यान रखते हुए कथा को प्रस्तुत किया है । "

इस दृष्टि से ही नहीं, शिल्प के सधाव, डैलोग्स के शार्पनेस और प्लेफुलनेस की वजह से भी यह नाटक अश्क की नाट्यकला का अप्रतिम उदाहरण है । यहाँ पीढ़ियों का रचना में अध्ययन और संवादों में उनका सहजता से खुलना । विवाह, प्रेम और सामाजिक प्रतिष्ठा विषय पर उनका नाटक 'अलग अलग सरीखे रास्ते' उल्लेखनीय है ।

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में यह स्त्री की स्थिति को अलग तरीके से देखता है । अश्क जी ने पचास से भी अधिक एकांकी लिखे होगे । स्वयं रंगमंच से जुड़े रहे इस रचनाकार के लिए एकांकियों में हास्य, त्रासदी, सामाजिक-पारिवारिक और व्यंग्यात्मक नाट्य स्थितयां आकर्षक है ।

मैंने जिन एकांकियों का एन्जॉय किया है उनमे सर्वाधिक 'पर्दा उठावो: पर्दा गिरवो , और फिर 'तौलिये' है । वैसे 'अंधी गली', 'अधिकार का रक्षक', पड़ोसिन का कोट', 'मैमूना' और 'चरवाहे' भी काम आकर्षक नहीं है । नाटक हो या एकांकी अश्क के लेखकीय निर्देश बड़े काम के है । यह ये तक बताते है की संवाद जल्दी बोलना है, पव पटक कर बोलना है या चिडचिडे स्वर में बोलना है ।

विंग की स्थिति, दर्शको का इन्वाल्मेंट और डैलाग्स में गड़बड़ी करके हास्य पैदा करना जैसे कारगर हथियार उनके पास है ही, वह परिधान सम्बन्धी निर्देश भी देते है । दृश्य के बारीक डिटेल्स, जेस्चर, एक जगह से दूसरी जगह जाने के संकेत और पात्रों के क्रियाकलापों के लिए ऐसे जरुरी निर्देश वे देते है कि मंचन में कही असुविधा न हो । अपने आप में वह कम्प्लीट स्क्रिप्ट है ।

कथेतर गद्य

मूलता कथाकार जरुर नज़र आते है अश्क, लेकिन उनका कथेतर गद्य भी बाँधने वाल है । उनके निबंध हो या आलोचनातमक लेख, टिप्पड़ियाँ हो या डायरी, वह अपने संजीदा अंदाज़ में में एक साथ पकड़ते है और बात बिखरती नहीं है । सामाजिक हो या पारिवारिक, उनके गद्य लेख सार्थक लेखन के उदाहरण है । मुझे उनका निबंध 'अभिव्यक्ति का सवाल', 'इश्कपेचा' और 'जंजीर' , 'रहे मंजिल नहीं॥', 'धन्यवाद्', 'लेखको कि समस्याए : व्यष्टि और समिष्टि' और अनेक डायरी अंक उल्लेखनीय लगते है।

उनकी डायरी में चुनिन्दा अनुभव प्रसंग ही मिलते है । रोज मर्रा कि सामान्य चीजे आप वहा नहीं पा सकते है । अश्क के आलोचक को भी सही परिप्रेक्ष्य में समझना जरुरी है । उनका आलोचक दो टूक जरुर है, लेकिन वह एक रचनाकार भी होने के कारण, लेखक का मित्र भी है । रचना और अभिव्यक्ति में भाषा कि महत्ता हो या 'नई कहानी :एक पर्यवेक्षण', 'आधुनिकता: खरी खोटी', हो या 'सीधी सदी भाषा में संश्लिष्ट अभिव्यंजना' की बात, रचना और रचना प्रक्रिया की बाते हो या लेखक का मंतव्य, वह एक उल्लेखनीय रचना-आलोचक है ।

अश्क की कविता

गिरिजा कुमार माथुर के अनुसार - "अश्क जी नाटककार, उपन्यासकार, कथाकार से पहले कवि है । उनकी बहुमुखी प्रतिभा का स्रोत उनकी काव्य-काला से ही आया है ।" यह सही भी है अश्क ने अपनी रचना यात्रा कविता से ही शुरू की थी । छंद कविता के साथ ही ग़ज़ल से भी उनका नाता रहा है लेकिन वह मुक्त छंद की भी कविता करते है । निजी मन की व्यथा कथा से प्रारंभ हुई उनकी कविता में सामाजिक राजनीतिक चिंताए भी परिलीक्षित होती है ।

उनके खंड काव्य बरगद की बेटी व चांदनी रात और अजगर ही नहीं अदृश्य नदी जैसा संग्रह भी उल्लेखनीय है । अश्क ने बीमारियों के बीच कविता-रचना खूब की । 1946 में यक्ष्मा से पीड़ित अश्क ने दीप जलेगा की शुरुवात की और 20-22 दिन में पूरी भी कर ली । अधूरे काव्य नजमा को उन्होंने 1947 की शुरुवात में एमर्जंसी वार्ड में पहले पत्नी से सुना और और फिर शेष बोलकर पत्नी से ही लिखवाया । बाद में उसका नाम भी बादल कर बरगद की बेटी हो गया । यह सिलसिला चलता रहा और 1950 में जब वह पीलिया से जकड गए तो चांदनी रात और अजगर लिखा गया ।

जब वह दीप जलेगा लिख रहे थे, महाराष्ट्र में किसान आन्दोलन चल रहा था । बकौल अश्क, इस कविता की रचना के दौरान तेलंगना आन्दोलन की भी स्मृति रही और चेखव, गोर्की और प्रेमचंद की संघर्षकामी चेतना की भी ।

यू तो अश्क ने अपना लेखन एक पंजाबी कवि के रूप में प्रारंभ किया । वह पंजाबी में ग़ज़ल भी कहते थे और बैत भी । 1928 के आस-पास उनकी गजले सामने आ चुकी थी । बदलते कविता के रूप और मिजाज़ के साथ-साथ अश्क का कवि भी बदलता रहा । अकाल पर लिखी उनकी कविता उनकी दृष्टि की परिचायक है । मुक्तिबोध के अस्थि-विसर्जन पर लिही गयी उनकी कविता 'एक फुल की मौत' पढ़कर कोई भी भाव-विव्हल हो सकता है ।

जहा वो दोनों दरवाजो के बीच जैसी बेचैन कर देनी वाली कविता लिखते है वही पंजाबी लोकगीत की तर्ज़ पर 'झाँझरे' भी लिखते है और प्रतिक्रिया स्वरुप 'लकड़बग्घे' जैसी कविता भी । जो अश्क के कवि पर व्यक्तिवादी होने का आरोप भी लगते रहे है, उन्हें कम से कम चिंता की चिंता ही पढ़ लेनी चाहिए । स्वयं को विषय बनाकर भी अश्क ने प्रतिक्रिया की भाषा में कविता भी की है । यह देखना हो तो 'अश्क बहुत श्रम करता है' पढ़ लेनी चाहिए ।

पंजाबी, हिंदी और उर्दू में उनकी कविताये अलग अलग तरह का रस देती है । यह दीगर बात है की एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तन करने के लिए उन्हें खासी मेहनत करनी पड़ी ।

उर्दू-हिंदी, दोनों में ही सबसे पहले उन्हें उच्चारण सम्बन्धी असुविधा महसूस हुई । उर्दू संभ्रांत लोगो की जुबान थी, इसलिए ग़ज़ल कहने लगे । एक बार उस्ताद से नाराज़ क्या हुवे कि कहानिया लिखने लगे । उर्दू लिखने में दो मित्र उनके मददगार हुए - पंडित रतनचंद मोहन और कवि राशिद । देखते देखते उर्दू में 10-12किताबे आ गयी । फिर सोचा कि हिंदी में लिखेगे । यह वह दौर था जब उर्दू कि पत्र और पत्रिकाए ज्यादातर लाहौर से प्रकाशित होती थे । दिल्ली से प्रकाशित होती थी शाकी । इनमे अश्क खूब प्रकाशित हो रहे थे ।

इसी बीच उनका परिचय और चिट्ठी पटरी प्रेमचंद से होने लगी । मन हुआ कि हंस में भी क्यों न छपे । खुद अश्क ने कहा है कि "विस्वामित्र और विशाल भारत कलकत्ते से, हंस बनारस से, माधुरी लखनऊ से, सरस्वती और चाँद इलाहबाद से, वीणा इंदौर से भारती और शांति लाहौर से प्रकाशित हुवा करती थी - और मै चाहता था कि मै उस विशाल पाठक वर्ग तक पहुचुं ।"

एक भाषा से दूसरी भाषा में और दूसरी भाषा से तीसरी भाषा में जाना आसान काम नहीं था, लेकिन घोर परिश्रमी अश्क ने यह भी कर दिखाया । धीरे धीरे ऐसी रवानी आती गयी कि वह हिंदी के हो गए।

अपने श्रम से उन्होंने ऐसी जगह बना ली कि हिंदी कथा-साहित्य का इतिहास उनके बगैर पूरा न हो सके । उनका महत्व वे लोग अछि तरह समझ सकते है जो ५ खुसरो बाग रोड को एक पता भर नहीं मानते ।

उपेन्द्र नाथ अश्क की कुछ कहानियाँ

§ जुदाई की शाम के गीत, 1933

§ सितारो के खेल, 1937

§ गिरती दीवारे, 1947

§ काले साहब, 1950

§ गर्मराख, 1952

शहर में घूमता आइना, 1962 .एक नन्ही किन्दिल , 1969

§ अश्क जी कुछ एकांकी

§ जय पराजय, 1937

§ स्वर्ग की झलक, 1938

§ लक्ष्मी का स्वागत 1941-43

§ कैद , 1943

§ उडान , 1943-45

§ अलग अलग रास्तें 1944-53

§ छठा बेटा 1948

§ अंजू दीदी ,1953-54

§ अश्क जी की कविताएँ

§ दीप जलेगा , 1950,

. चांदनी रात और अजगर 1952

उपेन्द्र नाथ अश्क: एक संपूर्ण जीवन परिचय

अनुक्रमांक –

नाम - रिचा

कक्षा - एम. ए. (हिंदी) प्रथम वर्ष

विद्यालय - -भगवानदीन आर्य कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, लखीमपुर खीरी